देवीखेत ग्राम ढौरी नौबाडी और दिखेत की सीमा पर स्थित पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य घोड़े की काठी जैसी आकृति की बनी एक बहुत ही सुन्दर जगह है ! सन १९४५ ई० तक यहाँ एक प्राईमरी स्कूल ही थी ! प्राईमरी के लिए चौथी कक्षा तक की पढाई होती थी ! चौथी क्लास की परीक्षाएं जिला के शिक्षा विभाग के इन्सपेक्टर की देख रेख में होती थी ! उस जमाने में पांचवीं से सातवीं क्लास को मीडिल कहते थे और इलाके में भ्रीगुखाल, पौखाल और मटियाली ही मीडिल स्कूल थे ! इन स्कूलों में वही बच्चे पढ़ने जा सकते थे जिनके रिश्तेदार इन स्थानों में रहते थे, या कुछ समर्थवान पैसे वाले ही अपने बच्चों को शहरों में भेज देते थे ! एक दिन मेरे मामा जी गोकुलसिंह जी इसी स्थान पर कुछ स्थानीय लोगों के साथ बैठे थे और स्थानीय समस्याओं के बारे में बातें हो रही थी की अचानक उनके दिमाग में एक विचार आया की अगर देवीखेत में ही मीडिल स्कूल खुल जाय तो यहाँ आस पास के बहुत सारे बच्चों को आगे पढ़ने का अवसर मिल जाएगा ! सुझाव तो उपस्थित सब लोगों सुन्दर लगा लेकिन स्कूल की बिल्डिंग बनाने के लिए पैसे कहाँ से आएँगे यह सवाल बड़ा अहम् था ! आनन् फानन में एक स्कूल कमेटी बनाई गयी और श्री गोकुलसिंह जी को इस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया ! लोगों से समपर्क करना, सक्षम लोगों से डोनेसन लेना और गरीबों से श्रमदान की अपील करना ! शुभ दिन और शुभ मुहूर्त पर स्कूल बिल्डिंग की आधार शिला रखी गयी ! धीरे धीरे स्कूल की दीवारें ऊंची उठती चले गयी
सारे स्थानीय लोगों की मेहनत रंग लाई और सन १९४६ ई० में मीडिल स्कूल की पहली पांचवीं क्लास यहाँ शुरू हुई ! मीडिल स्कूल का पहला दस्ता सातवीं की परिक्षा देने जहारीखाल गया था सन १९४८ ई० में ! और आज यही मीडिल स्कूल इंटर कालेज बन गयी है ! अब तो देवीखेत गढ़वाल के नकशे पर अपनी पहिचान बन चुका था ! स्कूल के प्राणागण में उसके बाद हर साल रामलीला होने लगी और रामलीला कमेटी में मामाजी के अलावा आस पास के गाँव की जानी मानी हस्तियाँ थी ! बहुत सालों तक वे परसुराम की भूमिका निभाते रहे ! सन १९५३ ई० में उन्होंने देवीखेत में नुमायस का आयोजन कराकर तहलका मचा दिया था ! आज तो दुनिया बहुत बदल चुकी है लोगों के पास शिक्षा है, रुपया पैसा है, साधन हैं, बिजली है पानी है, लेकिन वह समय बहुत संघर्षमय था ! पैसा नहीं था, साधनों की कमी थी, सरकार खुद गरीब थी इस तरह सरकारी अनुदान नहीं मिलता था ! किसानों से लगान लिया जाता है, आज तो बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं है की लगान किस चिड़िया का नाम है ! इन सारे सामाजिक कल्याण कारी कामों के कारण उनकी पहिचान जिला से लेकर प्रदेश तक हो गयी थी ! जनता का स्नेह और वोट उन्हें मिला और वे जिला बोर्ड के सदस्य चुने गए थे ! उस समय के प्रदेश के शिक्षा मंत्री श्री बलदेवसिंह आर्य को देवीखेत बुलवाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है ! उन्होंने बलदेवसिंह आर्य के साथ चाय नास्ता और भोजन करके छूत अछूत, उंच नीच की दूरी मिटा कर स्थानीय लोगों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया !
दिसम्बर सन १९५३ ई० में उन्होंने अपनी जन्म भूमि ढौरी सदा के लिए छोड़ दी और आ गए भावर झिन्दी चौड ! झिन्दी चौड उन दिनों एक घना जंगल था ! जंगली जानवरों का डर मलेरिया बुखार का खौफ ! उन दिनों मैं भी उनके साथ ही झिन्दी चौड गया था ! दो दिन-रात खुले आसमान के नीचे गुजारे फिर घास पूस की झोपडी बनी ! जंगल काटे गए ! पानी के लिए काफी दूर जाना पड़ता था ! वह समय भी बड़ा संघर्षमय था ! वहां भी उन्होंने समाज कल्याण का काम हाथ में लिया ! सरकारे कार्यलयों के चक्कर लगाए, पानी की व्यवस्था करवाई, सड़क का निर्माण करवाया, पोस्ट आफिस स्कूल खुलवाये !
इस तरह धीरे धीरे दुकाने खुलने लगी, गाँव बसने लगा ! और आज झिन्दी चौड कोटद्वार भावर का एक महत्त्व पूर्ण अंग बन चुका है ! इसके पूरब में पुराणों में वर्णित प्रसिद्ध मालन नदी बहती है और उत्तर में कर्ण्वाश्रम पड़ता है !
आज के झिन्दी चौड को देख कर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है की ५८ साल पहले यह झिन्दी चौड एक भयानक जंगल मात्र था ! इस झिन्दी चौड को ये नया रूप देने का श्रेय भी श्री गोकुलसिंह जी को ही जाता है ! (बाकी अगले भाग में )
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