निर्झर निरंतर अपने पथ पर,
अपनी धुन में छन छन करता,
वैरागी बैठा निर्झर नीचे,
लिखता एक सुंदर सी कविता,
जब निर्झर पर्वत से गिरता,
नीचे आ धरती से मिलता,
और खडा एक वृक्ष देवदार,
मस्त मस्त हो करके हिलता !
आती फ़िर पक्षियों के टोली,
एक ही भाषा सबने बोली,
और कहते इंसानों से,
क्यों चलती भाषा पर गोली?
ये निर्झर ठंडक पानी देता,
बदले में कुछ भी नहीं लेता,
जाति धर्म न भाषा पूछे,
ना खुशी न किसी से रूठे
इंसानों की तरह यह निर्झर,
कभी न करती वाडे झूठे !!
Saturday, November 21, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment