आज से ठीक पचास साल पहले ०६/०३/१९६० को मेरी शादी जयंती देवी, पुत्री श्री रंजीतसिंह गुसाईं गाँव तिमली, डबराल्स्युं के साथ हुआ था । मैं सेना में अपना भविष्य बनाने के लिए प्रवेश कर चुका था । वो ज़माना आज के जमाने से भिन्न था । उस समय का इंसान बहुत सीधा साधा, साधारण कम पढ़ा लिखा पर दुनिया के परपंचों से दूर था। सामान मिल जाता था पर पैसों की कमी थी। शादी में न कोंई टैंटों की रंगीनियाँ होती थी, न कैटरिंग सेवा उपलब्ध थी। न कैमरा न फोटो न डी वी डी, न जाज बैंड न पाईप न ब्रास बैंड । स्थानीय औजी होते थे उनके पास ढोल, तूरी, पाईप, बजाने के सामान होते थे और उन्हीं को बजा कर बारातियों का मंनोरंजन कर लिया करते थे। खाना तजुर्बेकार पंडित बनाते थे। खाना भी साधारण पर अति स्वादिष्ट होता था । जमीन में बैठ कर पत्तलों में खाना खाते थे । यहाँ कोंई बड़ा छोटा नहीं था । सभी एक साथ नीचे बैठ कर बड़े प्रेम से खाने का आनंद लेते थे । मेरे पिता जी नहीं थे, मेरी माँ मेरी मां भी थी और पिता जी भी। बड़े भाई कुंवरसिंह मुझसे चार साल बड़े थे घर के मुखिया थे, इसलिए बरात का पूरा इंतजाम करना उनके अधिकार क्षेत्र में आता था । वर पालकी में बैठता था और कहार पालकी उठाकर ले जाते थे । पहाडी इलाका, पहले ढलान फिर दो मील नदी के साथ साथ और फिर चढ़ाई थी। मैं कुछ दूर तो पालकी में गया बाकी रास्ता पैदल ही तय किया । शाम को बरात बिलकुल ठीक टाईम पर ससूराल पहुँच गयी थी। गाँव बड़ा नहीं था फिर भी सारा गाँव एक जुट था । सामियाना लगा था। बारातियों के लिए बहुत ही अच्छा इंतजाम किया गया था। हरेक बराती की सुख सुविधा का ध्यान रखा गया था । खाने में शाम को हलवा, रोटी, सब्जी, पकोड़ी और सुबह उड़द की दाल भात, पकोड़े, रोटी बनाई गयी थी ।
प्रशंचित और प्रशन मन से सब बारातियों ने भोजन ग्रहण किया । स्नेह से बनाया हुआ भोजन था इसलिए उसमें स्वाद भी था और मिठास भी थी। रात के तीन बजे उठ कर विधि विधान का अनुपालन किया गया। सुबह फेरे हुए, दोनों तरफ के विद्वान पंडितों ने श्लोकों से समा बाँध दिया। कॉल बचन हुए और शादी की प्रक्रिया विधि विधान से सम्पन्न हुई। चार बजे दिन के बरात विदा हुई, बधू अपनी सहेलियों से, माता-पिता से विदा हुई। अचानक चहल पहल और चेहरों की खुशियाँ विदाई के रंजों गम में तबदील हो गयी थी । इस तरह थी ५० साल पहले की शादी के रस्म-रिवाज, महिमान निवाजी । न कोई दहेज़ की प्रथा थी, न वधु पक्ष पर किसी किस्म से प्रेशर पड़ता था । दो परिवार एक हो जाते थे, एक दूजे का सुख दुःख बाँटते थे। मेरे ससुर जी अवकास प्राप्त जंगलात के रेंज अधिकारी थे, और मेरी पत्नी के भाई जगमोहनसिंह भी जंगलात विभाग में फौरेस्टर थे। परिवार खान दानी और अच्छे संस्कारों वाला, पढ़ा लिखा था। मुझे जैसा ससुराल चाहिए था ठीक वैसा ही मिल गया था ।
ठीक ५० साल बाद यानी ०६ मार्च २०१० शनिवार, कृष्ण पक्ष की षष्ठी यहाँ दिल्ली द्वारका में मॉस सोसायटी में मेरे बड़े लडके, राजेश बहु काजल, छोटा बेटा ब्रिजेश-बहु बिन्दु, लड़की उर्वशी और मेरे एक धेवती एक देवता (नीतिला-करण) तीन पोते आत्रेय वेदान्त, आर्नव तथा पोती आर्शिया ने मिलकर बंधू बांधव, पूरे सोसायटी के सदस्यों के साथ गोल्डन जुबली मनाई । इसमें सोसायटी के प्रधान कर्नल अनेजा जी तथा सचीव श्री आर के जैन और जैन जी की धर्म पत्नी श्रीमती शशी जी ने बड़ा योगदान दिया। इस अवसर पर सबसे वयोवृद्ध ख़ास महिमान मेरी बहु बिन्दु के दादा थे। हमें उनका आशीर्वाद मिला। शुरुआत सुन्दरकाण्ड से किया गया था । उसके बाद वर माला डाली गयी । २५० लोगों ने हमारी शादी की गोल्डन जुबली में हिस्सा लिया और इस जश्न को अधिक आकर्षक बनाने में साथ दिया। ऐसे लगा हम फिर ५० साल पीछे चले गए हैं और शादी मंडप में फेरे ले रहे हैं । बसंत का आगमन हो गया है। पेड़ पौधे अपने नए पत्तों को पाकर आनंदित हो रहे हैं। कुदरत अपनी रंगों की वर्षा कर रही है। कोयल आमों की डालियों में बैठी मस्त होकर गाना गा रही है। भंवरे सुन्दर सुन्दर फूलों में बैठे स्वर्ग का आनंद ले रहे हैं । और मैं और मेरी पत्नी स्वप्नों की डोली में बैठे नयी दुनिया की सैर कर रहे हैं।
Sunday, March 7, 2010
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very good
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