साप्ताहिकी धुन्धुवी के परिवार की ऑर से २१ मार्च २०१० के दिन झिन्दी चौड़ में विश्व वानिकी दिवस के अवसर पर एक स्मारिका "प्रयास" का विधिवत विमोचन किया गया ! इस अवसर पर उत्तराखंड जंगलात विभाग के प्रमुख वन संरक्षण डा० रघुवीरसिंह रावत, उपाध्यक्ष वन एंव -पर्यावरण अनुश्रवण समिति, अनिल बलूनी, शैलेंद्रसिंह रावत विधायक, श्रीमती कमला विद्यार्थी, (वीरांगना तीलू रौतेली राज्य पुरस्कार से सम्मानित), जंगलात विभाग के अन्य अधिकारी, कर्मचारी, आसपास इलाकों के ग्राम प्रधान, स्कूल के बच्चे, धुन्धुवी साप्ताहिक के लेखक तथा कई गणमान्य बुद्धजीवी इस समारोह में उपस्थित थे ! मुझे भी मेरे बेटे ब्रिजेश के साथ इस समारोह में सम्मलित होने का निमंत्रण था और मैं इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था ! इस समारोह की सबसे बड़ी जिम्मेदारी, धुन्धुवी के प्रधान सम्पादक सुधीन्द्र नेगी, प्रपौत्र स्वर्गीय श्री गोकुलसिंह नेगी व पुत्र स्वर्गीय श्री भूपेन्द्रसिंह नेगी, की थी और उनहोंने लगातार दो महीने कठीन मेहनत करके इस वानिकी दिवस को सफलता पूर्वक सम्मपन करने का श्रेय लिया !
मैं इस स्थान पर दिसंबर सन १९५३ ई० में अपने मामाजी स्वर्गीय श्री गोकुलसिंह जी के साथ आया था ! मामाजी का पहला परिवार था झिंडी चौड़ आने वाला ! उस समय यह इलाका पूरा जंगल था जंगली जानवरों से भरा हुआ !
ज़रा कल्पना कीजिए की आप अपनी बसी बसाई गिरस्थी, मकान, खेत खलियान, नाते रिश्ते, पास पड़ोसियों को छोड़कर एक जंगल में खुले आसमान के तले एक नयी गिरस्थी बसाने आगये हों ! पानी का सोत काफी दूर था ! खाद्य सामग्री के लिए दूर दूर तक दुकाने नहीं थी ! सबसे पहला कदम था, सुरक्षित स्थान ढूँढना रात बिताने के लिए ! फिर जंगल की सफाई करके खेतों में तब्दील करना ! यहाँ पर यह पीपल का पेड़ एक मात्र मूक गवाह है आज से ५७ साल पहले की घटनाओं का और इसी के नजदीक हम लोगों ने पहली रात बिताई थी ! उस समय यहाँ आने वाला हर व्यक्ति मेहनती था, हर एक दृढ संकल्प के साथ यहाँ आया था ! मच्छरों का दल पूरे साज बाजों के साथ आने वालों का स्वागत करने के लिए हर वक्त तत्पर रहता था ! जंगली घास से झोपड़े बनाए गए और रहने का ठिकाना किया गया ! मामाजी ने मुझे नन्ने बचों को पढ़ाने का काम दे दिया ! मैं दो महीने यहाँ रहा, कहीं से पीने का पानी, घड़ों में भर कर लाना पड़ता था ! कहने का मतलब यह एक बहुत ही संघर्ष मय समय था ! आज पूरे ५७ साल में यहाँ की काया पलट हो गयी ! पक्की सड़कें, पक्के मकान, नहर, पानी के नलके, बिजली , सजाया बाजार
पोस्ट आफिस, आने जाने की सुविधाए और वे सारी सुविधाएं जो एक सुविकसित शहर में उपलब्ध है, उच्च माद्यमिक विद्यालय, टेली फोन, हर नर नारी के पास मोबाईल फोन ! मेरे मामाजी का स्वपन साकार हो गया ! अगर आज वे ज़िंदा होते तो अपने हाथों से लगाई गयी इस फूलती फलती वाटिका को देख कर कितने खुश होते ! हाँ करीब ६-७ घंटे तक यहाँ रहे और इस पूरे समय में ज़रा भी महसूश नहीं हुआ की हम ऐसे स्थान पर बैठ हैं जो कबी घना जंगल हुआ करता था !
Tuesday, March 23, 2010
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