Thursday, September 16, 2010

रामायण के रहस्य (चौथा भाग)

अब भगवान राम अपनी सेना को साथ लेकर लंका पर चढ़ाई करने के लिए समुद्र तट पर पहुंचे ! वहां उन्होंने शिव लिंग की स्थापना की ! भगवान राम जब शिव लिंग की स्थापना के लिए किसी पुरोहित की तलाश में थे तो अचानक लंका पति रावण ब्राह्मण का भेष बनाकर वहां पूजा स्थल पर पहुँच गया !, उन्होंने विधि विधान से शिव जी की पूजा की और लिंग स्थापना में राम का सहयोग किया ! भगवान राम के अलावा इस भेद को कोई भी नहीं जान पाया ! रावण ने स्वयं रामेश्वर में शिव लिंग स्थापित करके और शंकर की पूजा करके, अपने स्वर्ग जाने की पहली सीढी तैयार कर दी थी ! फिर रामचंद्र जी ने लंका जाने के लिए समुद्र से रास्ता माँगा ! लेकिन तीन दिन बीतने पर भी समुद्र में जब कोई हलचल नहीं हुई तो भगवान् क्रोधित हो गए और उन्होंने धनुष पर वाण चढ़ा दिया, इस से भगवान् के क्रोध की अग्नि से समुद्र जलने लगा, चारों ओर हां हां कार मच गया ! जल चर ब्याकुल होने लगे, तब कहीं जाकर समुद्र की नींद खुली ! वे हाथ जोड़ कर राम के आगे खड़े हो गए और कहने लगे "प्रभु मैं तो जड़ हूँ, जल्दी से सजग नहीं हो पाता, मेरी गलती की सजा मेरे अन्दर पलने वाले इन जीव जंतुओं को मत दो ! इस तरह समुद्र के अनुनय विनय करने पर भगवान् का गुस्सा ठंडा हुआ ! राम बोले, "लेकिन जो बाण धनुष पर चढ़ चुका है उसका क्या करें " ? ! समुद्र ने दुखी होकर कहा "प्रभु मेरे उत्तर दिशा में कुछ दुष्ट लोग बसते हैं जो मुझे बहुत कष्ट पहुंचाते रहते हैं, आप इस वाण से उनका संहार करें ! इस तरह भगवान् ने वह वाण उत्तर दिशा की ओर चला दिया और दुष्टों का संहार किया ! समुद्र ने फिर भगवान् को समुद्र पार करने की विधि बताई और इस तरह से पूरी बानर और रिक्ष सेना सागर पार हो गयी ! उधर रावण को राम की सेना लंका पहुँच गयी है, का समाचार मिला ! लेकिन न रावण को न उसके सभा सदों को इस समाचार से कोई अचम्भा हुआ न वे भयभीत ही हुए ! जैसे रावण को पहले से ही पता था की 'श्री रामचंद्र जी लंका विजय करने आएँगे' सो आ गए ! भगवान राम ने मर्यादा का पालन करते हुए बाली पुत्र अंगद को रावण के दरवार men शांती का प्रस्ताव लेकर भेजा ! अब अंगद के रास्ते में लंका दरवार जाने के लिए कोई रुकावट नहीं थी, क्योंकि उनका प्रतिद्वन्दी रावण पुत्र अक्षय कुमार हनुमान जी के हाथों मारा जा चुका था ! अंगद ने रावण के दरवार में अपना पाँव धरती पर रोपते हुए रावण से कहा कि "आपकी सेना का कोई भी वीर अगर मेरे पाँव को उठा देगा तो मैं भगवान राम का एक सेवक राम की सेना की हार मान कर सेना सहित लंका से खाली हाथ लौट जाउंगा !
मेघनाथ जैसे इन्द्रजीत अंगद का पाँव नहीं उठा पाया, तमाम शूरमा पशीना पोंछते नजर आए ! जब रावण दरवार के सारे वीर रणधीर अंगद के पाँव को उठाना तो दूर की बात है हिला भी नहीं पाए तो रावण क्रोधित होकर अपने आसन से उठा और अंगद का पाँव उठाने के लिए उसके सामने आकर जैसे ही झुका, अंगद ने जल्दी से अपना पाँव हटाते हुए कहा, "रावण मेरे पांवों में पड़ने से तुम्हारा उद्धार नहीं होगा, भगवान राम के चरणों में गिरो मुक्ती मिल जाएगी " ! ठीक उसी समय अंगद ने रावण के सिर से उसका राज मुकुट उतार कर राम की ओर फेंक दिया ! वह केवल रावण का राज मुकुट ही नहीं था बल्की राजा की चार शक्तियां, साम, दाम, दंड, भेद भी थे जो रावण से सदा के लिए विदा हो गए ! उसका ऐश्वर्य, तेज, वैभव, गौरव और सारी सिद्धियाँ भी उससे जुदा हो गयी ! रावण को सब ज्ञान है लेकिन वही सिंघ नाद, वहीं घमंड वही ऐंठ ! एक एक करके उसके सेना के बड़े बड़े दिग्गज रण क्षेत्र में ढेर होते गए लेकिन फिर भी उसके माथे पर कभी कोई सिकन नहीं आई ! रावण का लड़का मेघनाथ, जिसने देवताओं के राजा इंद्र को हराकर इन्द्रजीत का खिलाप पाया था, कही मायावी शक्तियों का जानकार था ! उसके पास घोर तपस्या से प्राप्त किया हुआ एक ब्रह्माश्र भी था ! जब उसकी सारी मायावी शक्तियां लक्ष्मण जी के आगे बेकार हो गयी तो उसने अपनी जान बचाते हुए लक्ष्मण जी पर ब्रह्माश्र चला दिया, जिसे लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए ! हनुमान जी हिमालय पर्वत से संजीवनी वटी लाते हैं जिससे लक्ष्मण जी स्वस्थ हो जाते हैं ! फिर लक्ष्मण जी के हाथों मेघनाथ मारा जाता है, रामचंद्र जी कुम्भ करण को भी अपने धाम पहुंचा देते हैं ! रावण रामचंद्र जी सहित सारी सेना को नाग पास में जकड़ देता है, नारद जी के कहने पर हनुमान जी विष्णु के वाहन पक्षी राज गरुड़ को लाते हैं, जो सारे नागों को निगल कर राम सहित पूरी सेना को नाग पास घेरे से बाहर निकाल लेते हैं ! रावण को अपने पुत्र अहिरावण की याद आती है जो पाताल लोक का स्वामी है ! वह अपनी मायावी शक्तियों का सहारा लेकर सारी राम सेना को मन्त्र मोंह में बाँध कर राम -लक्ष्मण को पाताल लोक ले जाता है ! राम चाहते तो अहिरावण को यहीं मार डालते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और जानबूझ कर उसके साथ पाताल लोक चले गए ! साथ ही हनुमान जी भी अपने स्वामी राम की टोह लेते हुए पाताल लोक पहुँच जाते हैं ! हनुमान जी को द्वार पर मकर ध्वज नामक द्वार पाल ने रोक दिया ! हनुमान जी ने अपनी सारी तरकीबें अजमा ली लेकिन मकर ध्वज के आगे उनकी एक न चली ! युद्ध में भी वह बराबर की टक्कर दे रहा था ! हनुमान जी का माथा ठनका कि पाताल लोक में इतना वीर रणधीर, चतुर और सभ्य अहिरावण का द्वार पाल कौन हो सकता है ! हनुमान जी ने उसे उसके पिता का नाम पूछ लिया ! उसने पिता का नाम हनुमान बताया ! अब हनुमान जी हैरान हो गए कि "मैं तो ब्रह्मचारी हूँ फिर मेरा लड़का ये मकर ध्वज कैसे हो सकता है "? उसने बताया कि "मेरे पिता हनुमान जी जब लंका सीता माता की खोज लेने के लिए जा रहे थे तो आसमान में उड़ते हुए उनके शरीर से एक बूंद पशीने की समुद्र में गिर गयी थी, मेरी माँ मच्छली ने उस बूंद को उदर-अस्त कर दिया था उसी पशीने की बूँद से मेरा जन्म हुआ !" हनुमान जी ने कहा, "मैं ही तुम्हारा पिता हनुमान हूँ, मैं भी अपने स्वामी राम को अहिरावण के चंगुल से छुड़ाने के लिये आया हूँ, तुम मुझे अन्दर जाने दो " ! मकरध्वज ने कहा कि "मैं अपने स्वामी के साथ गद्दारी नहीं कर सकता, बिना मुझे हराए आप अन्दर नहीं जा सकते" ! आखीर में हनुमान जी ने मकरध्वज को अपने पाँव के बाल से बाँध दिया और अन्दर जाकर अहिरावण को सेना सहित मार कर भगवान् राम लक्ष्मण को सकुशल वापिस ले आये ! द्वार पर बंधे हुए मकर ध्वज की तरफ
इशारा करते हुए भगवान राम ने हनुमान जी से पूछा कि "यह कौन है और इसे बाँध के क्यों रखा हुया है "! हनुमान जी ने रामचंद्र जी को सारी कहानी बता दी ! भगवान् राम ने उसे खुलवाकर लक्ष्मण जी से उसे पाताल लोक की गद्दी पर बिठाने के लिए कहा ! उसी समय मकर ध्वज का राज तिलक किया गया ! राम-लक्ष्मण को लेकर हनुमान जी अपने समर कैम्प में पहुंचे ! रामा दल में फिर से खुशी की लहर दौड़ गयी ! अब लंका में केवल एक रावण ही बचा रह गया जिसको भगवान् जी ने युद्ध भूमि में गिरा कर अपने धाम में पहुंचा दिया और यही रावण की इच्छा थी !
(अगले भाग में जारी )

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