भगवान राम लक्षमण जानकी माँ पंचवटी में अपनी पर्ण कुटी बना कर रह रहे थे ! सुर्पंखां आई नाक कटवा कर चली गयी ! अपने भाई खर दूषण के पास गयी दोनों को सेना सहित राम के हाथों स्वर्ग पहुंचा गयी ! जब खर दूषण मारे गए, तो एक दिन जब लक्षमण जंगल में लकड़ी लेने गए थे भगवान राम चन्द्र जी ने सीता जी से कहा, "प्रिये अब मैं अपनी लीला शुरू करने जा रहा हूँ ! खर दूषण मारे गए, सूर्पनखां जब यह समाचार लेकर लंका जाएगी तो रावण आमने सामने की लड़ाई तो नहीं करेगा बल्की कोई न कोई चाल खेलेगा और मुझे अब दुष्टों को मारने के लिए लीला करनी है ! जब तक मैं पूरे राक्षसों को इस धरती से नहीं मिटा देता तब तक तुम अग्नि की सुरक्षा में रहो" ! भगवान् रामचंद्र जी ने उसी समय अग्नि प्रज्वलित की और सीता जी भगवान जी की आज्ञा लेकर अग्नि में प्रवेश कर गयी ! सीता माता जी के स्थान पर ब्रह्मा जी ने सीता जी के प्रतिबिम्ब को ही सीता जी बनाकर उनके स्थान पर बिठा दिया ! लक्षमण जी को इस लीला का पता भी नहीं चला !
आदो राम तपो वनादी गमनं, हत्वा मृगा कांचनम,
वैदेही हरणं जटायू मरणं, सुग्रीब संभाषणं,
बाली निर्दलम समुद्र तरणं, लंकापुरी दहनं,
पश्चात रावण कुम्भकरण हननम एदपि रामायणम !!
वहां लंका में सुर्पंखां ने रावण को सब कुछ बता दिया, की किस तरह राम लक्ष्मण सीता पंचवटी में रहते हैं, कैसे लक्ष्मण ने उसकी नाक काटी और किस तरहसे राम ने खर दूषण का वध कर दिया ! खर दूषण वध हो गया राम के द्वारा सुनकर रावण चौकना हो गया ! वह बहुत बड़ा विद्वान है, ८४ भाषाओं का ज्ञाता है ! वह मन ही मन सोचता है "खर दूषण मोही सम बलवंता, उन्हें मार सके न बिन भगवंता", "यानी की बिना भगवान के खर दूषण को कोई नहीं मार सकता, इसका मतलब राम के रूप में साक्षात भगवान इस धरती पर अवतार ले चुके हैं ! अब अगर मैं उनकी शरण में जाता हूँ तो मेरा कल्याण नहीं होगा ! वे अपने भगतों को नहीं मारते और मेरे पापों का प्राश्चित नहीं हो पाएगा ! अब मेरे पाप सबसे सरल रास्ता है की मैं उनसे बैर करूँ, उनकी भार्या सीता का हरण करूं और लड़ाई करते हुए उनके हाथों मरकर पूरे राक्षस जाति का उधार करूँ ! " ताड़का एक बड़ी दुष्ट राक्षसणी थी, उसके दो पुत्र थे, मारीच और सुबाहू ! ताड़का और सुबाहू को तो भगवान राम ने ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करते हुए मार गिराया था और मारीच को अपने बाण की शक्ती से उड़ा कर रावण की लंका में पहुंचा दिया था ! अब मारीच काफी बुढा हो चुका था लेकिन अपने माया जाल से रूप बदलने में माहिर था ! रावण को उसकी याद आई और उसे सोने का मृग बनकर पंचवटी जाने का आदेश दिया ! मार्च को अपनी मृत्यु सामने नजर आने लगी, सोचा अगर सोने का मृग बनकर पंचवटी नहीं गया तो ये दुष्ट राक्षस मुझे मार डालेगा, पंचवटी जाने से राम के वाणों से बच नहीं पाउँगा ! 'क्यों न श्री रामचन्द्र के वाणों से मर कर मोक्ष को प्राप्त करूँ '! वह तैयार हो गया !
सीता जी कौन थी ?
सीता जी लक्ष्मी जी के अवतार हैं और जब भी परमेश्वर अवतार लेकर धरती पर आते हैं तो लक्ष्मी जी उनकी शक्ती बनकर उनके साथ ही धरती पर अवतरित होती हैं ! ग्रन्थ कहते हैं कि एक बार रावण ने धरती के सारे ऋषि मुनियों पर उसके राज्य की सीमा के अन्दर रहने और उसकी पूजा न करके भगवान की पूजा करने वालों पर टैक्श लगा दिया ! इन तपस्विओं के पास देने के लिए कुछ नहीं था तो रावण की आज्ञा से उसके सैनिकों ने हर ऋषि मुनि से उसकी अंगुली काट कर रक्त के रूप में कर वसूल किया ! इस तरह रक्त से एक घडा भर गया ! वह घडा राजा जनक के राज्य की सीमा के अन्दर गाड़ा गया ! एक बार राजा जनक के राज्य में अकाल पड़ गया, वारीष नहीं हुई, चारों और हाहाकार मच गया, लोग भूखों मरने लगे ! राजा जनक बहुत चिंतित हुए, उन्होंने राज्य के विद्वानों, ज्ञानी, ऋषि मुनियों और कुल पुरोहित को बुलाकर उनसे इस अकाल से छुटकारा पाने का उपाय पूछा ! जाने माने विद्वाओं ने राजा जनक को जबाब दिया कि "जब महाराजा जनक स्वयं अपने राज्य की सीमा के अन्दर हल लगाएंगे तभी बारीष होगी और देश वासियों को इस भीषण अकाल से छुटकारा मिल पाएगा "! कहते हैं राजा जनक ने जैसे ही हल लगाना शुरू किया तो पहले ही सीं (हल के फल से चीरी हुई लाइन) पर हल के फल से कोई वस्तु टकराई ! उन्होंने हल खडा करके अपने सैनिकों से उस स्थान की खुदाई करवाई ! खदाई में एक घडा निकला और घड़े के अन्दर एक नन्नी सी बच्ची निकली, आगे चलाकर यही भगवान राम की भार्या सीता हुई ! इस तरह सीता जी को रावण की पुत्री भी कहा जाता है ! बाकी दूसरे भाग में
Monday, September 13, 2010
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