Monday, July 12, 2010

मेरी कहानी (तीसरा भाग )

मेरे मामा जी बड़े सज्जन थे लेकिन मैं तो अभी बच्चा था, उन दिनों बच्चे ९ साल तक डंगर चराते थे और अगर परिवार वाले बच्चे को स्कूल भेजना चाहें तो ९-१० के बाद ही भेजते थे ! ८ साल तक तो लंगोट भी नहीं पहिनी जाती थी ! मेरे लिए बिलकुल नया माहोल ! मेरा गाँव ठहरा छोटा तीन मकानों वाला गाँव और ढौ री बहुत बड़ा गाँव था वहां बच्चे भी बहुत थे ! काफी दिनों तक घर की याद आती रही ! हाँ हर शनिवार को चार बजे स्कूल की छुट्टी हो जाती थी और मैं देवीखेत स्कूल से ढौरी आता था फिर यहाँ से ढाई मील की उतराई उतर कर हिवल नदी और नदी नदी करीब तीन मील चल कर अपने गाँव पहुंचता था ! माँ बड़ी खुश हो जाती थे, फिर हम भाई बहिन लड़ना शुरू कर देते ! समय का पता ही नहीं लगता, कब इतवार आजाता और आँखों में आंसू भरकर चार बजे माँ भाइयों से गले लगकर चल पड़ता मामा कोट, स्कूल के लिए, वही नदी का रास्ता, फिर सीधे ढाई तीन मील की चढ़ाई और मामा कोट पहुंचते पहुंचते अँधेरा छा जाता ! लेकिन जब बरसात आजाती, नदी में बाढ़ आजाती, तो कभी कभी दो तीन हफ्ते तक मैं घर नहीं जापाता, कितना मिस करता था मैं अपने माँ और भाई बहिन को बचपन के साथियों को, ! माँ इंतज़ार करती रहती शाम ढलने तक, फिर सोचती "क्यों नहीं आया होगा हरेन्द्र, कहीं नदी में तो नहीं बह गया होगा !" पिता जी के स्वर्गवासी होने और उनके जाने के एक साल के अन्दर ही मेरा चार साल का मासूम प्यारा भाई गोविन्द भी हमें छोड़ कर चल गया था, माँ को बड़ा गहरा सदमा लगा था ! इसलिए उन्हें हर वक्त डर लगा रहता था की फिर कोई और बुरा न हो जाय ! कभी कभी माँ बड़े भाई कुवंरसिंह को मामाकोट भेज देती थी पता करने के लिए ! उन दिनों कहाँ था टेलीफोन, मोबायल ! या तो डाक या फिर पैदल नापकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना पड़ता था ! मेरी माँ ने बचपन से ही बड़े कष्ट सहे थे, जब केवल ९ साल की थें तो मेरी नानी भगवान के पास चली गयी थी, ११ साल के होते ही नाना जी भी स्वर्ग सिधार गए थे ! ३२ साल के होते होते मेरे पिता जी भी हमें मझधार में छोड़ कर चले गए थे ! चाचा कोई मदद गार नहीं नादान बच्चे, इनकम का कोई जरिया नहीं ! दादा जी काफी बूढ़े हो चुके थे, उनकी देख भाल करना भी एक जिम्मेदारी थी ! माँ कुछ दिन तो चिंतित रही फिर पक्का इरादा और विश्वास के साथ इस विषम प्रस्थिति का मुकाबला करने के लिए अपने को तैयार कर लिया ! सन १९४७ में मेरे दादा जी ने भी सबसे नाता तोड़ कर सदा के लिए आँखें मोड़ ली ! बड़े भाई ने हल संभाल लिया, माँ ने घर का पूरा काम, दूर से पानी लाना, जंगल से लकड़ी घास लाना, गाय, बैल, और अन्य मवेशियों की देखभाल, नास्ता बना कर खेतों में ले जाना, खेतों में हल के साथ डल्ले फोड़ना, निराई गुडाई और भी बहुत सारे काम ! फिर माँ के भाई उस समय के गढ़वाल में नेता और समाज के कार्यकर्ता के तौर पर जाने जाते थे, ये एक मानसिक स्पोर्ट था मेरी माँ को ! वैसी भी स्वतंत्रता का आन्दोलन शिखर पर और आन्दोलन से जुड़े हुए लोग मामा जी के कारण हमारे घर पर आकर, खाना चाय नास्ता करके जाते थे ! भगवान की कुदरत टूटी होने के वावजूद चाय, दाल, चावल, गेहूं की रोटी हमारे ही घर में बनती थी ! इनके अलावा भी कोई भूला भटका मुसाफिर भी हमारे घर से चाय नास्ता के वगैर नहीं जाता था ! दूर दराज के गाँवों में बच्चे बीमार हो जाते थे तो माँ-बाप माँ के पास आते थे और माँ एक जडी को घोंट कर तीन खुराक दवाई बनाती थी और बिना पैसा लिए यह दवाई बच्चे को पिला देती थी, ईश्वर की दया से बच्चा ठीक हो कर खेलने लग जाता था ! यह जडी मेरी माँ को मेरे दादा जी ने बताई थी ! इस तरह उस जमाने में जब गाँवों में कोई जानता भी नहीं था की डाक्टर क्या होता है, नाम मात्र के वैद्य होते थे जो नाडी देख कर जडी बूटी बनाकर देते थे, कोई ठीक होजाता था, कोई बेचारा किस्मत का हीन जिन्दगी भर बीमारी के बोझ को ढोते हुए ईश्वर के पास चला जाता था ! भगवान ने माँ को वरदान तो दे ही रखा होगा की जिन बच्चों को उनहोंने दवाई दी वे १००% स्वस्थ हुए ! जिन महिलाओं के बच्चे होने में कठिनाई होती थी उनके लिए माँ एक योग्य नर्स का काम भी करती थी ! इस तरह नजदीक ही नहीं दूर दूर के गाँवों में भी लोग माँ की इज्जत करने लगे थे ! माँ ने हमें बचपन में ही बड़ों को 'तुम' और और बड़ों को 'आप' कहना सिखाया था ! हम बच्चे कभी आपस में झगड़ पड़ते थे तो माँ हमें ही डाटती थी ! माँ का कहना था की कमी अपने में ढूँढो, दूसरो की अच्छाई लो, जिन्दगी में सदा सुखी रहोगे ! औरों को तो माँ खुशी देती थी लेकिन स्वयं कभी अर्द्ध कपाली के दर्द से तो कभी पेट की पीड़ा से जीवन भर परेशान रही ! हाँ एक बार सन १९८१ में उन्हें नमोनिया हुआ था और उनका इलाज आर्मी अस्पताल में हुआ था, तब से उनका सर दर्द तो ख़तम हो गया था, लेकिन दांतों का दर्द और पेट का दर्द ३ नवम्बर १९९८ को उनके साथ गया ! मेरे निवास स्थान पर ही जीवन पार्क, उत्तम नगर, दिल्ली में मेरी माँ ने स्वर्ग की यात्रा के लिए अपनी आँखें सदा के लिए मूँद ली हमें रोता छोड़ कर !
मेरे दादा जी
मुझे अपने दादा जी की खूब याद है ! जब वे स्वर्ग सिधारे थे उस समय मैं १२ साल का था ! वे मुझे अपने बारे में बताया करते थे की किस प्रकार उन्होंने एक बार बाघ को खाली हाथों ही मार दिया था, यह बात तो मुझे बाद में गाँव के बड़े बूढों ने भी बताई थी ! एक बार दादा जी जंगल के साथ लगे सीधी नुमा खेत में गोट में सो रहे थे (गोट सभी मविशियों को बाहर खेतों में बांध देना, चारों तरफ बांसों को चीर कर बने हुए लम्बे लम्बे पट्टियों से घेरा बना दिया जाता था और उन मवेशियों के बीच में उनकी रखवाली करने लिए एक आदमी को वहां रहना होता था ) । दादा जी दिन भर की मेहनत से थके थे सो गहरी नींद सो गए ! अचानक बाघ ने एक गाय की बछिया को पकड़ लिया उसके चिल्लाने से दादा जी की नींद खुल गयी और अर्ध्द निंद्रा में बाघ के ऊपर ही कूद पड़े, बाघ गुस्से में था उसने बछिया को तो छोड़ दिया और दादा जी पर पंजो से हमला करने लगा, दादा जी ने दोनों हाथों से उसका गला पकड़ दिया जोर से और उसके पंजो की परवाह किये वगैर तब तक नहीं छोड़ा जब तक वह मर नहीं गया ! दादा जी जख्मी हो चुके थे, अगले दिन सबेरे पिता जी तथा गाँव के लोग उन्हें घर लाये, छ महीने तक उनका इलाज चला, तब कहीं जाकर बाघ के नाखूनों का जहर खत्म हुआ ! ऐसे जांबाज थे हमारे पूर्वज ! वे एक दरिया दिल के इंसान थे ! दरवाजे पर माँगने वाले को भीख भीख के तौर पर नहीं देते थे, कम से कम चार पांच सेर अनाज दे देते थे ! उस जमाने में पैसों की कमी थी, इस तरह दान दक्षिणा अनाज के रूप में दिया जाता था ! जब तक वे ज़िंदा थे घर में अनाज की कमी नहीं रही ! आस पास के गाँव के लोगों के अलावा रिश्तेदार भी काम करने आते थे और खूब अनाज ले जाते थे !
उनकी एक इच्छा थी की जब वे संसार से विदा हों तो स्वतंत्र देश के नागरिक के तौर पर जांय, और वही हुआ, १५ अगस्त को देश आजाद हुआ और नवम्बर के महीने में वे स्वर्गवासी हुए ! (जारी चौथा भाग )

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