Tuesday, July 20, 2010

मेरी कहानी (आठवा भाग)

यहाँ तक जीन्दगी में काफी उतार चढ़ाव आये थे, फ़ौजी जिन्दगी में हमेशा सैनिक चौकना रहता है, पता नहीं कब क्या आदेश आ जाए ! आप छुटी मना रहे हैं, दोस्तों के साथ कहीं दूर कुदरत के हसीन नजारें देखने का लुफ्त उठा रहे हैं या नयी नयी शादी करके किसी ठंडी जगह जैसे माउंट आबू , दार्जिलिंग, शिमला, मंसूरी में वर्फ के ऊपर चलने स्कटिंग करने या फिर सफ़ेद चद्दर जैसी शुद्ध वर्फ के गोले बना बना कर एक दूसरे पर फेंकते हुए आनंद ले रहे हैं और अचानक यूनिट से टेली ग्राम आगया की "छुट्टी समाप्त" जल्दी हाजिर हो ! सोचो अगर ये सब कुछ आपके साथ घट जाय तो आपको कैसे लगेगा ? "आप सोचोगे, कहाँ फंस गए, ऐसी सर्विस से तो किसी सिविल आफिस में क्लास फ़ोर की नौकरी ही अच्छी है, ८ घंटे ड्यूटी के बाकी के १६ घंटे अपने ! " लेकिन अगर आपको बुलाया गया है, बीच में ही आपकी छुट्टी कैंसिल कर दी गयी है तो कोई ख़ास वजह है, वह वजह केवल दुश्मन के साथ युद्ध की घोषणा हो सकती है, यूनिट को किसी फ़ील्ड स्टेशन पर जाने का आदेश हो गया हो, प्रदेश में अन्दुरुनी अराजकता के भय से सरकार ने मिलिटरी की मदद माँगी हो, यूनिट के पास मन पावर कम हो तभी जाकर जवान को छुट्टी से बुलाया जाता है ! बुलाने वाले भी तो सैनिक ही होता है ! लेकिन एक बार आप ने ड्यूटी ज्वाइन करदी फिर आपको नहीं पता की कब दिन निकलता है और कब सूर्य देव अस्त हो जाते हैं ! लेकिन यहाँ रिकार्ड्स में यूनिट से अलग सिस्टम था ! यहाँ सिविलियन स्टाफ भी साथ था लेकिन जिम्मेवारी का काम फौजियों के कन्धों पर ही होता था ! यहाँ भी कुर्सी जिम्मेदारी की ही मिली थी ! कभी कभी ओवर टाईम भी बैठना पड़ता था ! फिर भी काफी समय मिल जाता था, बच्चों को घुमाने का, नई नई जगह दिखाने का ! उस समय डी टी सी की बसों का किराया ३० पैसे, ६० पैसे और बड़ा टिकट एक रुपये का था ! २ रपये का टिकट लेकर पूरा दिल्ली घूम सकते थे ! ब्ल्यू लाईन , रेड लाईन उस जमाने में नहीं थी ! एक ले.कमीशन लेने पर ४०० रुपया वेतन पाता था, रैक का सूबेदार मेजर इस से कम ही पाता होगा ! हाँ खाना पीना वर्दी सरकार की होती थी ! रहने के लिए बारिकें, बिजली, पानी सब फ्री था ! परिवार रखने के लिए बहुत ही कम मकान थे ! काफी इंतजारी के बाद तो नंबर आता था वह भी केवल एक सालके लिए ! दिल्ली में चांदनी चौक ठीक जैसे आज है वैसे ही था, हाँ वहां उस समय के कुमार, मैजेस्टिक, जगत मिनर्वा सिनेमा हौल थे जहां शनिवार इतवार को भारी भीड़ रहती थे ! रिकातें भी ३१ पैसे, ६२ पैसे और बड़ा से बड़ा टिकट १.२५ का था ! करोल बाग़ बनाने लगा था ! कमला नगर था, रूप नगर था लेकिन जहां आज शक्ती नगर है वहां एक बहुत बड़ा मैदान था जहां बच्चे साकिल चलाना सिखते थे ! फुहारे से एक ३ नंबर बस जो अब ७६० है चलती थी कैंट सदर तक, और एक प्राईवेट बस थी (हरी राम की) ये करोलबाग होते हुए, धुला कुवें में पटेल मार्ग से मिलती थी और सदर तक जाती थी ! धौला कुवें में एक गोल चक्कर था और तीन सड़कें यहाँ पर मिलती थी, एक कनात प्लस से सीधे कैंट को चली जाती थी, एक मोटी बाग़ की तरफ से इस गोल चक्कर पर मिलती थी। उन दिनों कोई रिंग रोड नहीं बनी थी ! धौला कुंवा पहाड़ियों से घिरा हुआ था ! न कोई होटल था न कोई सरकारी मकान था ! सड़क के दोनों और नाम मात्र के ठेली वाले मिल जाते थे या एक दो पान बीडी सिगरेट की छोटी छोटी दुकाने ! नांगल राया में स्टेशन के पास एक पान की दुकान और एक हलवाई की दुकान थी ! ये लोग प्रोपर्टी बेचने की भी पेस कस करते थे ! यहाँ जमीनी पानी साल्टी होने से खेती नहीं होती थी, केवल पच्चीस पैसे गज का भाव था ! लेकिन पैसे कहाँ थे, सब कुछ था पैसे नहीं थे ! ऐतिहासिक भवन मीनारें देखने का अच्छा अवसर था ! लालकिला के अन्दर जा सकते थे, दीवाने आम दीवाने ख़ास और पुरानी चित्रकारी, जामा मस्जिद, क़ुतुब मीनार के ३७६ सीढियां चढ़ कर पूरी दिल्ली देखने लुफ्ल उठाते थे ! यमुना के किनारे जीत गढ़ी पहाडी पर बने मीनार पर चढ़ कर उसके चारों ओर बने रोशनदानों से दिल्ली के नज़ारे देखना और गर्मियों में भी ताजी ठंडी हवाओं का मजा लेना ! यमुना का पानी साफ़ सुथरा था, त्योहारों के अवसर पर यमुना स्नान हो जाता था ! आज दिल्ली में मल्टी स्टोरीज गगन चुम्बी इमारतें खडी हो गयी हैं लेकिन यमुना नदी नदी न रह कर गंदा नाला बन गयी है ! हर नगर के चारों ओर झुग्गी झोपड़ियों ने दिल्ली की खूबसूरती में रेशमी चमचमाती साड़ी के बौर्डर पर टाट का पैबंद लगा दिया है ! दिल्ली की बढ़ती आबादी और बढ़ते हुए पौलुसन के जिम्मेवार हर पार्टी के नेता हैं जो बंगला देशी, पाकिस्तानियों को अवैध ढंग से अपने वोट बैक की राजनीति के तहत बसा रहे हैं ! आज यहाँ मेट्रो चल रही है, औटर रिंग रोड रिग रोड ने दिल्ली के एक हिस्से को दूसरे हिस्से तक मिला दिया है ! सडकों के ऊपर फ्लाई ओवर बन गए हैं लेकिन सडकों के ऊपर उतना ही प्रेसर बढ़ रहा है, जाम आज भी उतना ही लगा रहा है ! फिर ऊपर से यहाँ रोज वी वी आई पी और वी आई पी की फ़ौज सडकों पर मटर गस्ती करने निकल पड़ते हैं परिवार और नाते रिश्तेदारों के साथ, नतीजा आम आदमी के लिए जाम ! न घर से समय पर ऑफिस जा सकता, न ऑफिस से समय पर घर आ सकता ! कभी कभी तो बीमार आदमी हौस्पटल जाने के लिए जाम के कारण रास्ते में ही दम तोड़ देता है और नेता की तरफ से एक शब्द निकालता है "हमें है" !
मेरे लिए दिल्ली शुभ कारी रही है १२ अप्रैल सन १९७० को मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ती हुई, नाम रखा "राजेश" ! इसका जन्म आर्मी हास्पिटल में १०.१० पर हुआ था और उस दिन भी रविवार था ! अब परिवार में और ज्यादा खुशी आ गयी ! मेरा रिकार्ड्स का समय सीमा समाप्त हो गयी थी और मैं पूरी तरह से यूनिट जाने के लिए तैयार था !
मेरी कहानी (नवां भाग )

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